कानपुर देहात। कम छात्र संख्या वाले परिषदीय विद्यालयों को बंद किए जाने के सरकार के निर्णय के विरोध में कई शिक्षकों ने हाई कोर्ट का रुख किया है।
सरकार गरीब बच्चों को शिक्षा से वंचित करना चाहती है। गरीब बच्चों की पढ़ाई सरकार को अब बोझ लगने लगी है। शिक्षक हिमांशु राणा का कहना है कि विद्यालय मर्जर सम्बंधी आदेश से प्रदेश में छः वर्ष से चौदह वर्ष आयु वर्ग के बच्चों की बुनियादी शिक्षा पर संकट गहरा गया है। उक्त आदेश के क्रम में लगभग पूरे प्रदेश में 27000 परिषदीय विद्यालय बंद होने जा रहे हैं जोकि बच्चों के मौलिक अधिकारों का हनन है। इस आदेश के अनुपालन में विद्यालय प्रबंध समिति से सहमति कराने के लिए बेसिक शिक्षा विभाग के अलावा ग्राम विकास विभाग व जिलाधिकारी तक एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं जबकि पंचायत चुनाव की
निकटता को देखते हुए ग्राम प्रधान, बीडीसी व विद्यालय प्रबंध समिति के अध्यक्ष सख्त विरोध में हैं। शिक्षा में सुधार, नवाचार, शैक्षिक गुणवत्ता व उन्नयन के नाम पर करोड़ों रुपय डकारने के बाद राज्य सरकार उनकी शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार की जगह सीधे विद्यालय बंद करने पर आमादा है जोकि नन्हें मुन्ने बच्चों के भविष्य को अंधकार में करते हुए उनके भविष्य को संकट में डालने का कुत्सित प्रयास कर रही है। शैक्षिक सुधारों में अनवरत प्रयासरत शिक्षक हिमांशु राणा व टेट संघर्ष मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष का मानना है कि यदि शरीर का कोई अंग खराब होता है तो उसका उचित तरह से इलाज करने का प्रयास किया जाता है नाकी व्यक्ति को मृत मानकर दाह संस्कार की तैयारी की जाती है। परिषदीय विद्यालयों में शैक्षिक गुणवत्ता के सुधार के स्थान पर अधिकारियों ने अनवरत निजी विद्यालयों व गैर
मान्यता प्राप्त विद्यालयों के स्थापन पर जोर दिया है जिस कारण बेसिक विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या कम हुई है। यदि इन विद्यालयों में विभिन्न संसाधनों की कमी को समय रहते दूर कर लिया जाता तो ये छात्र संख्या अनवरत बढ़ती रहती लेकिन सरकार खुद नहीं चाहती है कि गरीबों के बच्चें शिक्षित हों इसीलिए छात्र संख्या की दुहाई देकर स्कूलों को बंद किया जा रहा है।
शिक्षक प्रवीण त्रिवेदी का कहना है कि जिन दीवारों ने बच्चों को सपने देखना सिखाया वे अब कम संख्या के सरकारी बहाने में दरकने को मजबूर हैं। बड़े-बड़े आंकड़े बनाकर मर्जर और पेयरिंग की नीति गढ़ने वाले जिम्मेदार शायद यह नहीं समझते कि गांव के स्कूल सिर्फ छात्र संख्या नहीं बल्कि सामाजिक न्याय, समावेशी विकास और आत्मगौरव की नींव होते हैं। शासन की नजर में यह महज एक कम छात्र संख्या वाला स्कूल है लेकिन गांव के लिए यह मंदिर, तीर्थ और आत्मा है। ऐसी शिक्षा नीति जो अतीत के गौरव और भविष्य की संभावना को नहीं पढ़ पा रही, वह किस दिशा में हमें ले जा रही है यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। अगर ऐसे विद्यालय भी सरप्लस की परिभाषा में आ जाएं तो समझिए शिक्षा अब समाज का अधिकार नहीं, केवल सरकार की सुविधा मात्र है।
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